विधिः
अंगुष्ठ,मध्यमा एवं अनामिका के अग्रभागों को स्पर्श करके शेष दो अँगुलियों को सीधा रखने से यह मुद्रा बनती है।
लाभ:
शरीर के विजातीय तत्व बाहर निकलते है तथा शरीर निर्मल बनता है। इसके अभ्यास से बवासीर,वायुविकार,कब्ज ,मधुमेह,मूत्रावरोध,गुर्दो के दोष के विकार दूर होते है। हदय रोग एवं पेट के लिए लाभदाए है।
सावधानी: इस मुद्रा से मूत्र अधिक स्त्रवित होगा।
अंगुष्ठ,मध्यमा एवं अनामिका के अग्रभागों को स्पर्श करके शेष दो अँगुलियों को सीधा रखने से यह मुद्रा बनती है।
लाभ:
शरीर के विजातीय तत्व बाहर निकलते है तथा शरीर निर्मल बनता है। इसके अभ्यास से बवासीर,वायुविकार,कब्ज ,मधुमेह,मूत्रावरोध,गुर्दो के दोष के विकार दूर होते है। हदय रोग एवं पेट के लिए लाभदाए है।
सावधानी: इस मुद्रा से मूत्र अधिक स्त्रवित होगा।
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